• "साहित्य प्राय: उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं" : कवि अरुण कमल से प्रमोद रंजन की बातचीत

    Author(s):
    Pramod Ranjan (see profile)
    Date:
    2022
    Group(s):
    Literary Journalism, Literary theory, Sociology
    Subject(s):
    Caste, Hindi literature, Little magazines, Marxism and culture, Globalization--Social aspects, Virtual reality--Social aspects
    Item Type:
    Interview
    Tag(s):
    Hindi literature--Periodicals, marxism and literature, Mikhail Bakhtin, Arun kamal, communalism in india
    Permanent URL:
    https://doi.org/10.17613/erzq-vq81
    Abstract:
    हिंदी कवि अरूण कमल से प्रमेाद रंजन की यह बातचीत पटना से प्रकाशित जन विकल्प के प्रवेशांक (जनवरी, 2007) में प्रकाशित हुई थी। साक्षात्कार के लिए अरुण कमल को प्रश्न साैंप दिए गए थे, जिसका उन्होंने लिखित उत्तर दिया था। इस साक्षात्कार में अरूण कमल ने जिन प्रश्नों के उत्तर दिए हैं, उनमें मुख्य निम्नांकित हैं : 1. आपको २०वीं सदी के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में रेखांकित किया गया और २१वीं सदी में भी आपकी रचना सक्रियता बनी हुई है। इस दौरान विश्व पटल पर कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं । हिंदी की मुख्यधारा की रचनाशीलता को दिशा देने वाला समाजवाद हाशिए पर चला गया है। अब भूमंडलीकरण को निर्मित करने वाली आर्थिक शक्तियां एक भिन्न किस्म का समाजशास्‍त्र भी गढ़ रही हैं। आप इन परिवर्तनों को कैसे देखते हैं? 2. मौजूदा स्थिति में क्या भूमंडलीकरण का कोई व्यवहारिक विकल्प हो सकता है? इसे एकमात्र विकल्प मानने वाले भी इसमें निहित साम्राज्यवाद के खतरे को चिन्हित करते हैं। ऐसे में भारतीय जनता का स्टैंड क्या होना चाहिए? इस संदर्भ में सत्तागत नीतियां क्या होनी चाहिए? 3. सूचनाओं के महाविस्फोट ने मध्यवर्ग को एक तरह के वर्चूअल (आभासी) संसार का निवासी बना दिया है। कहा जा रहा है कि जल्दी ही प्रतिरोध की बची-खुची कवायदें भी समाचार माध्यमों के दृश्य पटल का हिस्सा भर रह जाएंगी। क्या यह श्रेयकर होगा कि इस आभासी संसार का आनंद 'सभी` को उपलब्ध हो पाए? ऐसा होना किस तरह मनुष्‍यता के खिलाफ जाएगा? रियल से वर्चूअल की यह यात्रा कितनी प्रायोजित है? 4.. एक मार्क्सवादी होने के नाते इन दिनों सशक्त रूप से अभिव्यक्ति पा रहे सामाजिक समूहों की अस्मिताओं के संघर्ष को आप किस रूप में देखते हैं? क्या आपका कवि इनमें किसी मानवीय दृटि टकोण की तलाश कर पा रहा है? मार्क्सवादी दलों ने इधर अपने ऐजेंडे में वर्ग के साथ-साथ वर्ण को भी प्रमुखता से शामिल करना आरंभ किया है। जाति हिंदू समाज की मूल सच्चाई रही है। भारतीय मार्क्सवादियों को इसे समझने में इतनी देर क्यों लगी? राजनीति ही नहीं, बौद्धिक हलकों में भी समाज का इतना सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार, साहित्यिक व अन्य समाज-संस्कृतिकर्मी इसे प्रमुखता देने से क्यों बचते रहे? इतने लंबे समय तक इस यथार्थ की उपेक्षा को क्या आयातित विचारों का खुमार भर माना जाए, या षययंत्र भी?
    Notes:
    यह बातचीत अरुण कमल की पुस्तक 'कथोपकथन', वाणाी प्रकाशन, दिल्ली, 2009 (ISBN:9789350001103) में भी संकलित है। 'कथोपकथन' अरुण कमल के साक्षात्कारों का संकलन है।
    Metadata:
    Published as:
    Journal article    
    Status:
    Published
    Last Updated:
    1 year ago
    License:
    Attribution

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